गालिब शायरी 04




निकलना #खुद से आदम का #सुनते आये हैं लकिन
बहुत बेआबरू हो कर तेरे #कूचे से हम निकले


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उग रहा है दर ओ दीवार पे सब्ज़ा “ग़ालिब “
हम 'बयाबान' में हैं और घर में #बहार आई है ..

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वो आये घर में #हमारे , खुदा की कुदरत है
कभी हम उन्हें कभी अपने घर को देखते है

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पीने दे शराब मस्जिद में #बैठ के , ग़ालिब
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है


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इश्क़ ने "ग़ालिब" निकम्मा कर दिया
वरना हम भी #आदमी थे काम के

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उम्र भर हम भी गलती करते रहे "ग़ालिब"
धूल चेहरे पे थी और हम #आईना साफ़ करते रहे


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उनके देखने से जो आ जाती है चेहरे पे रौनक
वो समझते है के बीमार का हाल अच्छा है


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हाथों की #लकीरो पे मत जा "ग़ालिब"
नसीब उनके भी होते है #जिनके हाथ नहीं होते


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चंद #तस्वीर-ऐ-बुताँ , चंद #हसीनों के खतूत .
बाद मरने के मेरे घर से यह #सामान निकला



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हमको #मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन 
दिल के खुश रखने को “ग़ालिब” यह #ख्याल अच्छा है

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बाजीचा-ऐ-अतफाल है# दुनिया मेरे आगे 
होता है शब-ओ-रोज़ #तमाशा मेरे आगे


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खुदा के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा #ज़ालिम 
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही #काफिर सनम निकले


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तेरी दुआओं में असर हो तो #मस्जिद को हिला के दिखा 
नहीं तो दो घूँट पी और #मस्जिद को हिलता देख


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मोहब्बत मैं नहीं है #फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते है जिस #काफिर पे दम निकले


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लफ़्ज़ों की #तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”
हम तुम को याद करते हैं #सीधी सी बात है



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थी #खबर गर्म के "ग़ालिब" के उड़ेंगे पुर्ज़े ,
देखने हम भी गए थे पर #तमाशा न हुआ


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दिल दिया जान के क्यों उसको #वफादार , असद 
ग़लती की के जो #काफिर को मुस्लमान समझा


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लाज़िम #था के देखे मेरा रास्ता कोई दिन और
तनहा गए क्यों , अब रहो तनहा #कोई दिन और



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लाग् हो तो #उसको हम समझे लगाव 
जब न हो कुछ भी , तो #धोखा खायें क्या


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हो लिए क्यों #नामाबर के साथ -साथ 
या रब ! अपने खत को हम #पहुँचायें क्या



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उल्फ़त #पैदा हुई है , कहते हैं , हर दर्द की दवा 
यूं हो हो तो चेहरा -ऐ -गम #उल्फ़त ही क्यों न हो .


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“ग़ालिब ” बुरा न मान जो #वैज बुरा कहे 
ऐसा भी कोई है के सब #अच्छा कहे जिसे


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नादान हो जो #कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब “
किस्मत मैं है मरने की #तमन्ना कोई दिन और


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हैफ़ उस चार #गिरह कपड़े की किस्मत ग़ालिब 
जिस की किस्मत में हो #आशिक़ का गरेबां होना


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आया है मुझे बेकशी #इश्क़ पे रोना ग़ालिब 
किस का घर #जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद


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गम -ऐ -हस्ती का #असद किस से हो जूझ मर्ज इलाज 
शमा हर #रंग मैं जलती है सहर होने तक ..


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ग़ालिब ‘ हमें न छेड़ की फिर जोश -ऐ -अश्क से 
बैठे हैं हम #तहय्या -ऐ -तूफ़ान किये हुए


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ख्वाहिशों का #काफिला भी अजीब ही है ग़ालिब 
अक्सर वहीँ से #गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता


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पूछते हैं वो की ‘ग़ालिब ‘ कौन है ?
कोई बतलाओ की हम #बतलायें क्या


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करने गए थे उस से #तग़ाफ़ुल का हम गिला 
बस एक ही निगाह की बस ख़ाक हो गए


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“ग़ालिब” छूटी #शराब पर अब भी कभी कभी ,
पीता हूँ रोज़ -ऐ -अबरो शब -ऐ -महताब में


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रही न #ताक़त  ऐ #गुफ्तार और अगर हो भी ,
तो किस #उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है ..


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रात है ,#सनाटा है , वहां कोई न होगा, ग़ालिब
चलो उन के दरो  ओ  दीवार #चूम के आते हैं


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हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया, पर याद आती है
जो हर एक बात पे कहना की यूं #होता तो क्या होता

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#इश्क़ पर जोर नहीं , यह तो वो आतिश है, "ग़ालिब"
के लगाये न लगे और #बुझाए न बुझे

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तोड़ा कुछ इस अदा से #तालुक़ उस ने ग़ालिब 
के सारी #उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे।


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बे-वजह नहीं रोता #इश्क़ में कोई "ग़ालिब" 
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो #रूलाता ज़रूर है


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#क़ासिद के आते -आते खत एक और लिख रखूँ 
मैं जानता हूँ जो वो #लिखेंगे जवाब में


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दर्द हो दिल में तो #दबा कीजिये 
दिल ही जब दर्द हो तो #क्या कीजिये।

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तेरे #हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है ग़ालिब 
कौन होश में रहता है तुझे #देखने के बाद


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