Munwwar rana shayari

अब आप की मर्ज़ी है #सँभालें न सँभालें
ख़ुशबू की तरह आप के #रूमाल में हम हैं- 

अब #जुदाई के सफ़र को मेरे आसान करो
तुम मुझे ख़्वाब में आकर न #परेशान करो

अभी ज़िंदा है #माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूँ #दुआ भी साथ चलती है

आते हैं जैसे जैसे #बिछड़ने के दिन क़रीब
लगता है जैसे #रेल से कटने लगा हूँ मैं

इस तरह मेरे #गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत #ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

एक आँसू भी #हुकूमत के लिए ख़तरा है
तुम ने देखा नहीं आँखों का #समुंदर होना

ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं #शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के #मौसम में ये त्यौहार पड़ा है

कल अपने-आप को देखा था माँ की #आँखों में
ये #आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है

किसी के #ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा
अगर बहनें नहीं होंगी तो #राखी कौन बाँधेगा

किसी को घर मिला #हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मिरे #हिस्से में माँ आई

किसी #दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए
तुम्हारा शहर से जाना मेरा #बीमार हो जाना

कुछ #बिखरी हुई यादों के क़िस्से भी बहुत थे
कुछ उस ने भी बालों को #खुला छोड़ दिया था

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यूँ गुज़रे
ये बच्चे की तमन्ना है ये समझौता नहीं करती

खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे
तुझे ऐ मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँड लेना है

गर कभी रोना ही पड़ जाए तो इतना रोना
आ के बरसात तेरे सामने तौबा कर ले

घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
लड़कियाँ धान के पौधो की तरह होती हैं

चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

जितने बिखरे हुए काग़ज़ हैं वो यकजा कर ले
रात चुपके से कहा आ के हवा ने हम से- 

तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तक
तमाम खेल मोहब्बत में इंतिज़ार का है

तुझे मा'लूम है इन फेफड़ों में ज़ख़्म आए हैं
तेरी यादों की इक नन्ही सी चिंगारी बचाने में

तुम ने जब शहर को जंगल में बदल डाला है
फिर तो अब क़ैस को जंगल से निकल आने दो

तुम्हारा नाम आया और हम तकने लगे रस्ता
तुम्हारी याद आई और खिड़की खोल दी हम ने

तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो
तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है

तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कांधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं

तुम्हें भी नींद सी आने लगी है थक गए हम भी
चलो हम आज ये क़िस्सा अधूरा छोड़ देते हैं

तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझ को अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें
रौशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता

दिन भर की मशक़्क़त से बदन चूर है लेकिन
माँ ने मुझे देखा तो थकन भूल गई है

देखना है तुझे सहरा तो परेशाँ क्यूँ है
कुछ दिनों के लिए मुझ से मिरी आँखें ले जा

दौलत से मोहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था

निकलने ही नहीं देती हैं अश्कों को मेरी आँखें
कि ये बच्चे हमेशा माँ की निगरानी में रहते हैं


पचपन बरस की उम्र तो होने को आ गई
लेकिन वो चेहरा आँखों से ओझल न हो सका

फ़रिश्ते आ कर उन के जिस्म पर ख़ुश्बू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं

फिर कर्बला के ब'अद दिखाई नहीं दिया
ऐसा कोई भी शख़्स कि प्यासा कहें जिसे

फेंकी न 'मुनव्वर' ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है- 

बच्चों की फ़ीस उन की किताबें क़लम दवात
मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया

बर्बाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सब से कह रही है कि बेटा मज़े में है

बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है
रहते रहते स्टेशन पर लोग क़ुली हो जाते हैं

भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे
कँवल के फूल से जैसे भरा तालाब रहता है

माँ ख़्वाब में आ कर ये बता जाती है हर रोज़
बोसीदा सी ओढ़ी हुई इस शाल में हम हैं

मिट्टी का बदन कर दिया मिट्टी के हवाले
मिट्टी को कहीं ताज-महल में नहीं रक्खा

मेरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा
कि उम्र भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ

मेरे बच्चों में सारी आदतें मौजूद हैं मेरी
तो फिर इन बद-नसीबों को न क्यूँ उर्दू ज़बाँ आई

मुझे भी उस की जुदाई सताती रहती है
उसे भी ख़्वाब में बेटा दिखाई देता है

मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गई

मैं दुनिया के मेआ'र पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मिरे मेआ'र पे पूरी नहीं उतरी

मैं ने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दें
सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़-ए-माँ रहने दिया

मैं राह-ए-इश्क़ के हर पेच-ओ-ख़म से वाक़िफ़ हूँ
ये रास्ता मेरे घर से निकल के जाता है

मोहब्बत एक पाकीज़ा अमल है इस लिए शायद
सिमट कर शर्म सारी एक बोसे में चली आई

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
में जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है

ये सोच कर कि तेरा इंतिज़ार लाज़िम है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली
सारी दुनिया मेरे कमरे के बराबर निकली

शहर के रस्ते हों चाहे गाँव की पगडंडियाँ
माँ की उँगली थाम कर चलना बहुत अच्छा लगा- 

सहरा पे बुरा वक़्त मेरे यार पड़ा है
दीवाना कई रोज़ से बीमार पड़ा है

सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

हँस के मिलता है मगर काफ़ी थकी लगती हैं
उस की आँखें कई सदियों की जगी लगती हैं 

हम नहीं थे तो क्या कमी थी यहाँ
हम न होंगे तो क्या कमी होगी

हम सब की जो दुआ थी उसे सुन लिया गया
फूलों की तरह आप को भी चुन लिया गया

हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बाँधे हुए है

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